मैं क्यूँ उस को फ़ोन करूँ!
उस के भी तो इल्म में होगा
कल शब
मौसम की पहली बारिश थी!
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मक़्तल-ए-वक़्त में ख़ामोश गवाही की तरह
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
इक हुनर था कमाल था क्या था
ये क्या कि वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझ से
बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे
ताज-महल
हवा-ए-ताज़ा में फिर जिस्म ओ जाँ बसाने का
सभी गुनाह धुल गए सज़ा ही और हो गई
बाब-ए-हैरत से मुझे इज़्न-ए-सफ़र होने को है
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
ज़ूद-पशीमान