ताज-महल
संग-ए-मरमर की ख़ुनुक बाँहों में
हुस्न-ए-ख़्वाबीदा के आगे मिरी आँखें शल हैं
गुंग सदियों के तनाज़ुर में कोई बोलता है
वक़्त जज़्बे के तराज़ू पे ज़र-ओ-सीम-ओ-जवाहिर की तड़प तौलता है!
हर नए चाँद पे पत्थर वही सच कहते हैं
उसी लम्हे से दमक उठते में उन के चेहरे
जिस की लौ उम्र गए इक दिल-ए-शब-ज़ाद को महताब बना आई थी!
उसी महताब की इक नर्म किरन
साँचा-ए-संग में ढल पाई तो
इश्क़ रंग-ए-अबदिय्यत से सर-अफ़राज़ हुआ
क्या अजब नींद है
जिस को छू कर
जो भी आता है खुली आँख लिए आता है
सो चुके ख़्वाब-ए-अबद देखने वाले कब के
और ज़माना है कि उस ख़्वाब की ताबीर लिए जाग रहा है अब तक!
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