मैं ने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
लेकिन जब से
तेरी दुआ में
मेरा नाम शरीक हुआ है
तेरे होंटों की जुम्बिश पर
मेरे अंदर की दासी के उजले तन में
घंटियाँ बजती रहती हैं!
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ज़िद
मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर न हुई
धूप सात रंगों में फैलती है आँखों पर
गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो
तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
तेरे तोहफ़े तो सब अच्छे हैं मगर मौज-ए-बहार
वो मेरे पाँव को छूने झुका था जिस लम्हे
ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
वो मजबूरी नहीं थी ये अदाकारी नहीं है
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी