शाम आई तिरी यादों के सितारे निकले
शाम आई तिरी यादों के सितारे निकले
रंग ही ग़म के नहीं नक़्श भी प्यारे निकले
एक मौहूम तमन्ना के सहारे निकले
चाँद के साथ तिरे हिज्र के मारे निकले
कोई मौसम हो मगर शान-ए-ख़म-ओ-पेच वही
रात की तरह कोई ज़ुल्फ़ सँवारे निकले
रक़्स जिन का हमें साहिल से बहा लाया था
वो भँवर आँख तक आए तो किनारे निकले
वो तो जाँ ले के भी वैसा ही सुबुक-नाम रहा
इश्क़ के बाब में सब जुर्म हमारे निकले
इश्क़ दरिया है जो तेरे वो तही-दस्त रहे
वो जो डूबे थे किसी और किनारे निकले
धूप की रुत में कोई छाँव उगाता कैसे
शाख़ फूटी थी कि हम-सायों में आरे निकले
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