दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
दुख नविश्ता है तो आँधी को लिखा आहिस्ता
ऐ ख़ुदा अब के चले ज़र्द हवा आहिस्ता आहिस्ता
ख़्वाब जल जाएँ मिरी चश्म-ए-तमन्ना बुझ जाए
बस हथेली से उड़े रंग-ए-हिना आहिस्ता
ज़ख़्म ही खोलने आई है तो उजलत कैसी
छू मिरे जिस्म को ऐ बाद-ए-सबा आहिस्ता
टूटने और बिखरने का कोई मौसम हो
फूल की एक दुआ मौज-ए-हवा आहिस्ता
जानती हूँ कि बिछड़ना तिरी मजबूरी है
पर मिरी जान मिले मुझ को सज़ा आहिस्ता
मिरी चाहत में भी अब सोच का रंग आने लगा
और तिरा प्यार भी शिद्दत में हुआ आहिस्ता
नींद पर जाल से पड़ने लगे आवाज़ों के
और फिर होने लगी तेरी सदा आहिस्ता
रात जब फूल के रुख़्सार पे धीरे से झुकी
चाँद ने झुक के कहा और ज़रा आहिस्ता
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