ख़ुद को जब तेरे मुक़ाबिल पाया
अपनी पहचान का लम्हा आया
अक्स-दर-अक्स थे रंगों के चराग़
मैं ने मिट्टी का दिया अपनाया
एक पल एक सदी पर भारी
सोच पर ऐसा भी लम्हा आया
पाँव छलनी तो वफ़ा घाइल थी
जाने उस मोड़ पे क्या याद आया
एक लम्हे के तबस्सुम का फ़ुसूँ
जाँ से गुज़रे तो समझ में आया