दम-ब-ख़ुद गुलशनों की रानाई
कैसी खोई हुई बहार आई
तुम को सौदा-ए-महफ़िल-आराई
और हमें जुस्तुजू-ए-तन्हाई
राहतें तुम को रंज हम को अज़ीज़
अपनी अपनी नज़र की गहराई
कितनी बेगानगी से देखते हो
जब ग़म-ए-ज़िंदगी की बात आई
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म है हयात 'फ़ना'
कैसे कर पाओगे मसीहाई