पहाड़ों से उतरती शाम की बेचारगी देखें
पहाड़ों से उतरती शाम की बेचारगी देखें
दरख़्तों पर लरज़ कर बुझ रही हैं आख़िरी किरनें
बहुत ही सर्द है अब के दयार-ए-शौक़ का मौसम
चलो गुज़रे दिनों की राख में चिंगारियाँ ढूँडें
भला पत्थर भी रोते हैं कभी शीशे के ज़ख़्मों पर
अगर होता है ऐसा तो हिसाब-ए-दोस्ताँ भूलें
सवाद-ए-शाम में ढूँडें कोई मानूस सा चेहरा
हवा की रहगुज़र पे एक नन्हा सा दिया रक्खें
कहाँ अल्फ़ाज़ देते हैं हमारा साथ अब 'फ़िक्री'
कहे अशआर सब बे-जाँ हुईं बेकार सब ग़ज़लें
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