किसी का नक़्श अंधेरे में जब उभर आया
किसी का नक़्श अंधेरे में जब उभर आया
उदास चेहरा शब-ए-दर्द का निखर आया
खुले किवाड़ों के पीछे छुपा था सन्नाटा
सफ़र से हारा मुसाफ़िर जब अपने घर आया
जवाज़ ढूँडे वो अपने शिकस्ता-ख़्वाबों का
मैं उस की आँखों से ऐसे सवाल कर आया
वो अक्स अक्स ख़यालों का आइना निकला
मुझे वो शख़्स उजाले में जब नज़र आया
उखड़ती साँसों में क्या था बताऊँ क्या 'फ़िक्री'
यही समझ लो कि क़िस्सा तमाम कर आया
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