दिल बहलने का जहाँ में कोई सामाँ न हुआ
दिल बहलने का जहाँ में कोई सामाँ न हुआ
अपना हमदर्द कभी आलम-ए-इम्काँ न हुआ
शिकवा-ए-हिज्र न भूले से भी आया लब पर
रू-ब-रू उन के मैं ख़ुद-कर्दा पशेमाँ न हुआ
हम-नशीं पूछ न हाल-ए-दिल-ए-नाकाम-ए-अज़ल
यही हसरत रही पूरा कोई अरमाँ न हुआ
बे-ख़ुदी में ये है आलम तिरे दीवानों का
फ़स्ल-ए-गुल आई मगर चाक गरेबाँ न हुआ
कोई क्या जाने कि क्या लुत्फ़ ख़लिश है हासिल
मेरा ही दिल है कि मिन्नत-कश-ए-दरमाँ न हुआ
यूँ तो हमदर्द ज़माना था ब-ज़ाहिर लेकिन
किसी सूरत से इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ न हुआ
बे-धड़क जाने की हिम्मत न हुई महशर में
मुँह छुपाने के लिए दस्त-ब-दामाँ न हुआ
दिल बहलता भी तो किस तरह बहलता शब-ए-ग़म
साज़-ओ-सामाँ न हुआ नग़्मा-ए-हिर्मां न हुआ
पुर्सिश-ए-हाल पे आँखों में भर आए आँसू
ऐसे मजबूर हुए ज़ब्त भी आसाँ न हुआ
ज़र्रे ज़र्रे से अयाँ हुस्न की रा'नाई है
वो हसीं तू है कि पर्दों में भी पिन्हाँ न हुआ
मैं था मुश्ताक़ तिरे जल्वे का ऐ माया-ए-हुस्न
रह के पर्दे में भी तो शो'ला-ए-उर्यां न हुआ
चैन से क़ैद तअ'य्युन में बसर की ऐ 'शौक़'
दिल भी जमईयत-ए-ख़ातिर से परेशाँ न हुआ
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