चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं
चुरा न आँख को साक़ी कि बादा-नोश हूँ मैं
अभी तो फ़ैसला होता है एक साग़र पर
मरीज़-ए-इश्क़ की हालत कभी न सँभलेगी
मुझे तो छोड़ दे ऐ चारा-गर मुक़द्दर पर
हमारे नाले भी थक थक के अब तो बैठ रहे
गए वो दिन कि उठाते थे आसमाँ सर पर
हमारे मय-कदा को छोड़ कर न जा ज़ाहिद
मिलेगा क़तरा न कम-बख़्त हौज़-ए-कौसर पर
गिला न हम ने किया 'शौक़' उस सितमगर से
बलाएँ सब वो उठाईं जो आ पड़ीं सर पर
(393) Peoples Rate This