साज़िशों की भीड़ में तारीकियाँ सर पर उठाए
साज़िशों की भीड़ में तारीकियाँ सर पर उठाए
बढ़ रहे हैं शाम के साए धुआँ सर पर उठाए
रेग-ज़ारों में भटकती सोच के कुछ ख़ुश्क लम्हे
तल्ख़ी-ए-हालात की हैं दास्ताँ सर पर उठाए
ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
और वहशी रात है गुमराहियाँ सर पर उठाए
चंद गूँगी दस्तकें हैं घर के दरवाज़े के बाहर
चीख़ सन्नाटों की है सारा मकाँ सर पर उठाए
ज़ेहन में ठहरी हुई है एक आँधी मुद्दतों से
हम मगर फिरते रहे रेग-ए-रवाँ सर पर उठाए
आलम-ए-ला-वारसी में जाने कब से दर-ब-दर हूँ
पुश्त पर माज़ी को लादे क़र्ज़-ए-जाँ सर पर उठाए
मुज़्तरिब सी रूह है मेरी भटकता फिर रहा हूँ
मैं कई जन्मों से हूँ बार-ए-गिराँ सर पर उठाए
'रिंद' जब बे-सम्तियों में ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे हों
तोहमतें किस के लिए शाम-ए-ख़िज़ाँ सर पर उठाए
(339) Peoples Rate This