मुझे ऐ ज़िंदगी आवाज़ मत दे
मुझे ऐ ज़िंदगी आवाज़ मत दे
नहीं मंज़िल कोई पर्वाज़ मत दे
जिए जाता हूँ आदत बन चुकी है
नहीं सुर लगते यारब साज़ मत दे
नया है रूप आलम का ख़ुदाया
अनोखा अब मुझे अंदाज़ मत दे
नतीजा जानता हूँ दिल-लगी का
सज़ाएँ फ़ाख़्ता को बाज़ मत दे
पस-ए-पर्दा रहा है भेद अब तक
नहीं हामिल उन्हें तू राज़ मत दे
रहा अंजाम है जिनकी नज़र में
उन्हें जो चाहे दे आग़ाज़ मत दे
निभाया फ़र्ज़ ही कब हुक्मराँ का
किसी क़ातिल को तू ए'ज़ाज़ मत दे
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