इश्क़ की तमन्ना थी इश्क़ की तमन्ना है
इश्क़ ही की राहों में मस्तियों का मेला है
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ये किस अदा से चमन से बहार गुज़री है
दूर सहरा की कड़ी धूप में छाँव जैसा
पलकों पे सज रहे हैं जो मोती न रोलिए
दिल ने चाहा था जिसे अपने सहारे की तरह
नक़्श जब भी तिरा उभारा है
हिज्र का दिन है ये गुज़रने दे
आज मेरी पलकों पर क़ुदसियों का मेला है
क़ैस-ए-सहरा-नशीं से ले आओ
ख़ुद से मिलने की जुस्तुजू तुम हो