मसीहा
तजरबे गरचे ये बताते हैं
वक़्त बे-रहम इक सिपाही है
जिस का मज़बूत ओ आहनी पंजा
दिल का आईना तोड़ देता है
दश्त-ए-हस्ती में आबला-पा को
हमा-दम राह-ए-ग़म दिखाता है
नौ-ब-नौ इंतिशार लाता है
ज़िंदगी को दुखी बनाता है
लेकिन ऐ हम-सफ़र ठहर तो सही
तजरबे ये भी तो बताते हैं
वक़्त इक नर्म-दिल मसीहा है
जिस के नाज़ुक हसीन फूल से हाथ
टूटे आईने जोड़ देते हैं
जामा-ए-तन के चाक सेते हैं
उँगलियाँ ज़ख़्म-ए-दिल पे रखते हैं
अश्क आँखों से पोंछ देते हैं
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