तुम आ गए हो जब से खटकने लगी है शाम
तुम आ गए हो जब से खटकने लगी है शाम
साग़र की तरह रोज़ छलकने लगी है शाम
शायद किसी की याद का मौसम फिर आ गया
पहलू में दिल की तरह धड़कने लगी है शाम
कुछ तू ही अपने ख़ून-ए-रमीदा की ले ख़बर
पलकों पे क़तरा क़तरा टपकने लगी है शाम
सहरा-ए-पुर-सुकूत में कुछ आहुओं के साथ
फिर किस की आरज़ू में भटकने लगी है शाम
क्या जाने आज क्यूँ किसी मज़दूर की तरह
सूरज ग़ुरूब होते ही थकने लगी है शाम
कुछ और आइना में सँवरने लगे हैं वो
जिस दिन से उन पे जान छिड़कने लगी है शाम
'दौराँ' सुना है सूरत-ए-गेसू-ए-अम्बरीं
इमसाल फिर चमन में महकने लगी है शाम
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