ज़मीं पे बैठ के बे-इख़्तियार ढूँढता हूँ
ज़मीं पे बैठ के बे-इख़्तियार ढूँढता हूँ
मैं आसमान का गर्द-ओ-ग़ुबार ढूँढता हूँ
मुझे पता है किसी में ये शय नहीं मौजूद
हर एक शख़्स में क्यूँ ए'तिबार ढूँढता हूँ
अकेला बैठ के मस्जिद के एक कोने में
कमाल करता हूँ पर्वरदिगार ढूँढता हूँ
कि आइने में कई आईने किए तख़्लीक़
सो एक चेहरे में चेहरे हज़ार ढूँढता हूँ
तुम्हारी याद तो रक्खी है जेब में मैं ने
ये क्यूँ इधर से उधर बार बार ढूँढता हूँ
मैं ऐसे आलम-ए-वहशत में हूँ कि तन्हाई
पुकारती है मुझे मैं पुकार ढूँढता हूँ
मिरे लिए तो ख़त-ए-इंतिज़ार खींचती है
तिरे लिए मैं ख़त-ए-इंतिज़ार ढूँढता हूँ
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