मर्सिया
उदास यादों की मुज़्महिल रात बीत भी जा
कि मेरी आँखों में अब लहू है न ख़्वाब कोई
मैं सब दिए ताक़-ए-आरज़ू के बुझा चुका हूँ
तू ही बता अब
कि मर्ग-ए-महताब ओ ख़ून-ए-अंजुम पे नज़्र क्या दूँ
न मेरा माज़ी न मेरा फ़र्दा
बिखर गई थी जो ज़ुल्फ़ कब की सँवर चुकी है
और आने वाली सहर भी आ कर गुज़र चुकी है
उदास यादों की मुज़्महिल रात बीत भी जा!
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