अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
अब तो फ़िराक़-ए-सुब्ह में बुझने लगी हयात
बार-ए-इलाह कितने पहर रह गई है रात
हर तीरगी में तू ने उतारी है रौशनी
अब ख़ुद उतर के आ कि सियह-तर है काएनात
कुछ आईने से रक्खे हुए हैं सर-ए-वजूद
और इन में अपना जश्न मनाती है मेरी ज़ात
बोले नहीं वो हर्फ़ जो ईमान में न थे
लिक्खी नहीं वो बात जो अपनी नहीं थी बात
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