मंज़र रोज़ बदल देता हूँ अपनी नर्म-ख़याली से
मंज़र रोज़ बदल देता हूँ अपनी नर्म-ख़याली से
शाम शफ़क़ में ढल जाती है रंग-ए-हिना की लाली से
तुझ से बिछड़ कर ज़िंदा रहना अपने सोग में जीना है
दिल इक फूल था ख़ुश्बू वाला टूट गया है डाली से
शहर-ए-तरब को जाने किस की नज़र लगी है आज की शब
रस्ते भी वीरान पड़े हैं घर लगते हैं ख़ाली से
दुनिया वाले जिस को अक्सर रोना-धोना कहते हैं
आँखें दरिया बन जाती है जज़्बों की सय्याली से
धूल-भरे रस्तों के सफ़र ने तर्ज़-ए-फ़िक्र बदल डाला
ख़ौफ़-ज़दा सी रहने लगी है ख़ाक-ए-बदन पामाली से
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