यूँ गुज़र रहा है दिन कितने इम्तिहानों से
यूँ गुज़र रहा है दिन कितने इम्तिहानों से
साया साया उतरी है धूप आसमानों से
क्यूँ कहें किसी से हम कौन सी हवा थी वो
रौशनी चुरा कर जो ले गई मकानों से
आज अपनी मिट्टी से इस तरह मैं बिछड़ी हूँ
जिस तरह बिछड़ते हैं लोग ख़ानदानों से
लग चुकी है होंटों पर जिन के मोहर-ए-ख़ामोशी
हम सवाल क्या करते ऐसे बे-ज़बानों से
बस उन्ही की तस्वीरें अब वहाँ मुनक़्क़श हैं
आइने उठा लाए जो निगार-ख़ानों से
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