पत्थरों से दोस्ती क्या भा गई
इक नदी अपनी रवानी खा गई
देर तक क़िस्मत पड़ी सोती रही
धूप घर के बाम-ओ-दर तक आ गई
इक किरन ख़ुशबू की सूरत आई और
ना-गहाँ कमरा मिरा महका गई
ख़ुद उजालों के लिए माँगी दुआ
अपनी तारीकी से शब घबरा गई
चाँद उतरा नूर की महफ़िल में जब
रौशनी ही रौशनी पर छा गई