हवस किसी को हो देखने की जो मौज-ए-बे-इंतिहा-ए-दरिया
हवस किसी को हो देखने की जो मौज-ए-बे-इंतिहा-ए-दरिया
तो आ के चश्मों को देखे मेरी कि याँ से है इब्तिदा-ए-दरिया
हबाब उन को न समझो यारो ये उठते पानी में हैं जो हर-दम
बदन खुला जो किसी का देखा खुले हैं ये दीदा-हाए-दरिया
दुरून-ए-गिर्दाब अब जो जा कर फँसी है कश्ती हमारी यारब
सरिश्क-ए-यास अब भी है जो आँखों से क्या कहें माजरा-ए-दरिया
सरिश्क-ए-चश्म और आह-ए-सोज़ाँ ने मेरे ऐ वाए एक पल में
बहुत से जंगल किए हैं सरसब्ज़ और कितने सुखाए दरिया
उठाएगा जब तलक न 'नुसरत' तू वर्ता-ए-इ'श्क़ की मशक़्क़त
तो हाथ आवेगा क्यूँकि तेरे वो गौहर-ए-बे-बहा-ए-दरिया
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