झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
झिलमिलाता हुआ वो अक्स वहाँ है कैसा
जलते बुझते हुए फ़ानूस हैं मंज़र मंज़र
नक़्श-दर-नक़्श वो मिट कर भी अयाँ है कैसा
कितने अल्फ़ाज़-ओ-मआनी के वरक़ खुलते हैं
मेरे अंदर ये किताबों का जहाँ है कैसा
मुझ में अब मेरी जगह और कोई है शायद
कुछ समझ में नहीं आता ये गुमाँ है कैसा
शहर से लौट के घर क़र्ज़ चुकाना है मुझे
कैसे लिक्खूँ कि मिरा हाल यहाँ है कैसा
किस ने डाली है फ़ज़ाओं पे ये मैली चादर
शब के माथे पे लहू-रंग निशाँ है कैसा
मुट्ठियाँ भेज के हम लोग रहे हैं कब से
दूर तक आग का जंगल है समाँ है कैसा
मेरे अज्दाद के तो ख़्वाब यहाँ दफ़्न नहीं
ये हवेली ये पुर-असरार धुआँ है कैसा
क़ब्रें भी उस में नहीं ताज-महल की सूरत
कोई आबाद नहीं है ये मकाँ है कैसा
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