ज़िंदगी क़रीब है किस क़दर जमाल से
जब कोई सँवर गया ज़िंदगी सँवर गई
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ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
तेज़-तर लहजा-ए-गुफ़्तार किया है हम ने
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
तजल्लियों से ग़म-ए-ए'तिबार ले के उठा
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है