ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
आइनों के दरमियाँ से आई है
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यूँही ठहर ठहर के मैं रोता चला गया
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शादमानी है
लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
तेज़-तर लहजा-ए-गुफ़्तार किया है हम ने
नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है
मेरी आँखों में हैं आँसू तेरे दामन में बहार
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
कभी सुनते हैं अक़्ल-ओ-होश की और कम भी पीते हैं
तग़य्युरात के आलम में ज़िंदगानी है