ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
हम इक चराग़-ए-मोहब्बत जलाए जाते हैं
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ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
जाँ-बाज़ों के लब पर भी अब ऐश का नाम आया
कभी सुनते हैं अक़्ल-ओ-होश की और कम भी पीते हैं
फ़िक्र-ए-नौ ज़ौक़-ए-तपाँ से आई है
अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
दिया साक़ी ने अव्वल रोज़ वो पैमाना मस्ती में
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी