यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कि शबनम के लिए दामन तो फैलाया नहीं करते
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ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
क़दम मय-ख़ाना में रखना भी कार-ए-पुख़्ता-काराँ है
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिस ने भी मोहब्बत की
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
तेज़-तर लहजा-ए-गुफ़्तार किया है हम ने
हुस्न जितना ही सादा होता है
सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक