उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
वो हुस्न जिस को हुस्न-ए-बे-सबात कहते आए हैं
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चिलमन से जो दामन के किनारे निकल आए
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
यूँही ठहर ठहर के मैं रोता चला गया
लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
दुनिया की बहारों से आँखें यूँ फेर लीं जाने वालों ने
एक रिश्ता भी मोहब्बत का अगर टूट गया
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए