सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
मैं ये समझा कि मय-ख़ाने पे बदली छाई जाती है
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याद आती रही भुला न सके
हुस्न जितना ही सादा होता है
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
क़दम मय-ख़ाना में रखना भी कार-ए-पुख़्ता-काराँ है
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
मैं ने कभी नज़र न की दिल-कशी-ए-हयात पर
तारीख़-ए-जुनूँ ये है कि हर दौर-ए-ख़िरद में
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिस ने भी मोहब्बत की
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शादमानी है