क़दम मय-ख़ाना में रखना भी कार-ए-पुख़्ता-काराँ है
जो पैमाना उठाते हैं वो थर्राया नहीं करते
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हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
फ़िक्र-ए-नौ ज़ौक़-ए-तपाँ से आई है
नफ़स नफ़स पे मुझे याद आए जाते हैं
हाथ से दुनिया निकलती जाएगी
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है