'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
ये बातें राज़ की हैं क़िब्ला-ए-आलम भी पीते हैं
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ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
हुस्न जितना ही सादा होता है
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है
इक नज़र का फ़साना है दुनिया
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में