मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
अज़ाँ में कह गया मैं एक दिन या पीर-ए-मय-ख़ाना
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मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
हाथ से दुनिया निकलती जाएगी
ज़ीस्त मिलती है उम्र-ए-फ़ानी से
है शाम अभी क्या है बहकी हुई बातें हैं
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
दौलत का फ़लक तोड़ के आलम की जबीं पर
हमा-गिर्या सिल्क-ए-शबनम हमा-अश्क बज़्म-ए-अंजुम
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
नज़र नज़र को साक़ी-ए-हयात कहते आए हैं
ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शादमानी है
चिलमन से जो दामन के किनारे निकल आए