हम ने भी निगाहों से उन्हें छू ही लिया है
आईने का रुख़ जब वो इधर करते रहे हैं
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मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
मैं तिनकों का दामन पकड़ता नहीं हूँ
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
तारीख़-ए-जुनूँ ये है कि हर दौर-ए-ख़िरद में
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
मैं ने कभी नज़र न की दिल-कशी-ए-हयात पर
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले