हम रिवायात को पिघला के 'नुशूर'
इक नए फ़न के क़रीब आ पहुँचे
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नज़र नज़र को साक़ी-ए-हयात कहते आए हैं
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
नफ़स नफ़स पे मुझे याद आए जाते हैं
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
मेरी आँखों में हैं आँसू तेरे दामन में बहार
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
मलाहत जवानी तबस्सुम इशारा