हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
नज़र नहीं तो अंधेरा है आदमी के लिए
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इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
यूँही ठहर ठहर के मैं रोता चला गया
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे
अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शादमानी है
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका