हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
कोई पर्दे में होता है तो चिलमन जगमगाती है
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सहर और शाम से कुछ यूँ गुज़रता जा रहा हूँ मैं
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
मैं तिनकों का दामन पकड़ता नहीं हूँ
किस बेबसी के साथ बसर कर रहा है उम्र
जल्वा-ए-सहर
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
जाँ-बाज़ों के लब पर भी अब ऐश का नाम आया
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं