है शाम अभी क्या है बहकी हुई बातें हैं
कुछ रात ढले साक़ी मय-ख़ाना सँभलता है
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सहर और शाम से कुछ यूँ गुज़रता जा रहा हूँ मैं
दिल है कि मोहब्बत में अपना न पराया है
उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे
हाथ से दुनिया निकलती जाएगी
दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
हुस्न जितना ही सादा होता है