गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
जो बे-गुनाह था वो भी नज़र मिला न सका
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इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका
कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
ज़ीस्त मिलती है उम्र-ए-फ़ानी से
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
दिया साक़ी ने अव्वल रोज़ वो पैमाना मस्ती में