दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आओ जहाँ तक रौशनी मा'लूम होती है
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हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
नज़र नज़र को साक़ी-ए-हयात कहते आए हैं
उस दिल की मुसीबत कौन सुने जो ग़म के मुक़ाबिल आ जाए
ज़िंदगी क़रीब है किस क़दर जमाल से
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका
मैं शाद हूँ तो ज़माने में शादमानी है
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे
'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
ज़ीस्त मिलती है उम्र-ए-फ़ानी से
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका