बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए
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चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
तजल्लियों से ग़म-ए-ए'तिबार ले के उठा
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिस ने भी मोहब्बत की
नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं