अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
अपने लिए फूलों का कफ़न हम ने बनाया
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ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
ग़म-ए-ख़ामोश जो बा-अश्क-चकाँ रखता हूँ
फ़िक्र-ए-नौ ज़ौक़-ए-तपाँ से आई है
इक दामन-ए-रंगीं लहराया मस्ती सी फ़ज़ा में छा ही गई
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
क़दम मय-ख़ाना में रखना भी कार-ए-पुख़्ता-काराँ है
कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
हमा-गिर्या सिल्क-ए-शबनम हमा-अश्क बज़्म-ए-अंजुम
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे