पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
दूर तक निकहत-ए-गुल ख़ाक उड़ाती आई
उफ़ वो बेगाना निगाहों की करम-फ़रमाई
फ़ितरत-ए-इश्क़ ब-अंदाज़-ए-जुनूँ थर्राई
ताज़ा ताज़ा वो शिकस्त-ए-सुख़न-ए-रा'नाई
चुप हुए वो तो तबस्सुम की झलक सी आई
आख़िर-ए-शब वो सितारों की सरकती हुई छाँव
मैं वहीं बैठ गया रात जहाँ लहराई
जागी जागी हुई पलकें वो ब-आग़ोश-ए-जमाल
दिल को आराम ज़ियादा था तो कम नींद आई
वक़्त ने ज़र्फ़-ए-नज़र को लब-ए-मय-ख्वार किया
तिश्नगी शीशे को पैमाना बना कर लाई
ज़िंदगी एक हुजूम-ए-गुज़राँ है लेकिन
आदमी अपनी जगह आलम-ए-सद-तन्हाई
अपने ही शोला-ए-रंगीं से जला दामन-ए-गुल
अपनी ही शाख़-ए-तबस्सुम पे कली मुरझाई
मंज़िल-ए-अक़्ल जुनूँ रंग उसे मिलती है
जिस ने इक बार रह-ए-इश्क़ में ठोकर खाई
पत्ते पत्ते का नहीं गुलशन-ए-आलम में जवाब
ज़र्रे ज़र्रे में धड़कता है दिल-ए-यकताई
टूटती सी रग-ए-दौराँ ये तरक़्क़ी की थकन
किसी मा'शूक़-ए-सहर-ख़ेज़ की नीम-अंगड़ाई
ख़ाक और ख़ून से इक शम्अ' जलाई है 'नुशूर'
मौत से हम ने भी सीखी है हयात-आराई
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