पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
मासूम है क्या जाने दामन कहीं जलता है
मेरी मिज़ा-ए-ग़म पर लर्ज़ां है हक़ीक़त सी
उन के लब-ए-लालीं पर अफ़्साना मचलता है
अच्छी है रहे थोड़ी ये जल्वा-तराज़ी भी
रक़्स-ए-मह-ओ-अंजुम में दीवाना बहलता है
उनवान-ए-तरक़्क़ी है ये तीरा-फ़िज़ाई भी
कुछ गर्द भी उठती है जब क़ाफ़िला चलता है
है शाम अभी क्या है बहकी हुई बातें हैं
कुछ रात ढले साक़ी मय-ख़ाना सँभलता है
बस देख चुकी दुनिया ये बज़्म-ए-फ़रोज़ी भी
रक्खा है चराग़ ऐसा बुझता है न जलता है
इक सेहर-ए-शबिस्ताँ है ये फ़न्न-ए-जहाँ-रानी
दुनिया है कि सोती है जादू है कि चलता है
अफ़्लास के आँसू से तूफ़ाँ भी लरज़ते हैं
शोलों का जिगर गोया शबनम से दहलता है
मुतरिब-ब-लब-ए-लालीं साक़ी-ब-मय-ओ-मीना
इस गर्मी-ए-महफ़िल में ईमान पिघलता है
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