मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
वो न जाने कौन सा वक़्त था कि बिना-ए-ख़ून-ए-जिगर पड़ी
जिसे चाहे मालिक-ए-रंग-ओ-बू उसी बे-रुख़ी में नवाज़ दे
मैं इधर था मुंतज़िर-ए-करम वो निगाह-ए-नाज़ उधर पड़ी
तिरा काम सैर-ए-मुदाम है न कि गुल्सितानों में ठहरना
ये कली कली के फ़रेब में तू कहाँ से बाद-ए-सहर पड़ी
कोई मौज-ए-बहर से दूर है तो जबीन-ए-बहर पे क्या शिकन
तिरी रहमतों को हुआ ये क्या मिरी लग़्ज़िशों पे नज़र पड़ी
तुझे क्या हो क़द्र मलाल की तू है ना-रसीदा-ए-ज़िंदगी
जो बहुत फिरे हैं गली गली तू जबीं पे गर्द-ए-सफ़र पड़ी
सर-ए-राह उन को ब-यक-नज़र कभी देखिए तो वही अदा
वही बे-नियाज़ी-ए-महवशाँ वही ज़ुल्फ़ ता-ब-कमर पड़ी
ब-निगाह-ए-साक़ी-ए-महर-ओ-मह कभी ख़ाली जाम नहीं रहा
मैं ज़मीं पे ढूँड रहा था कुछ कि वो कहकशाँ से उतर पड़ी
जो हुदूद-ए-सुब्ह में रुक गया उसे इत्तिफ़ाक़-ए-सफ़र कहो
मैं वही मुसाफ़िर-ए-शाम हूँ मिरे रास्ते में सहर पड़ी
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