मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
शीशे का बयाँ और है साक़ी का बयाँ और
इंकार-ए-हक़ीक़त भी है इक सैर-ए-हक़ीक़त
होता है यक़ीं और तो बढ़ता है गुमाँ और
रंगीन फ़ज़ाओं में टपकने लगे आँसू
आया हूँ गुलिस्तान तो शबनम है चकाँ और
इस दर्जा भी मायूस न देखी थीं बहारें
दुनिया में हैं ऐ दोस्त बहुत मुल्क-ए-ख़िज़ाँ और
हर गाम 'नुशूर' आबला-पाई का है आलम
कुछ दूर है ये क़ाफ़िला-ए-दर्द रवाँ और
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