हैरत-ओ-ख़ौफ़ के मेहवर से निकल पड़ते हैं
हैरत-ओ-ख़ौफ़ के मेहवर से निकल पड़ते हैं
आओ आसेब-ज़दा घर से निकल पड़ते हैं
जिस्म को और समेटूँ तो रग-ए-जाँ रुक जाए
पाँव फैलाऊँ तो चादर से निकल पड़ते हैं
वो किया करता है बंदों की हिफ़ाज़त यूँ भी
रास्ते बीच समुंदर से निकल पड़ते हैं
सब्र मज़लूम का जब हद से गुज़रता है तो फिर
वार टूटे हुए ख़ंजर से निकल पड़ते हैं
जब मैं कहता हूँ ग़ज़ल सामने उस के क़ैसर
मुज़्महिल लफ़्ज़ भी बिस्तर से निकल पड़ते हैं
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