सितारे
निकल कर जू-ए-नग़्मा ख़ुल्द-ज़ार-ए-माह-ओ-अंजुम से
फ़ज़ा की वुसअतों में है रवाँ आहिस्ता आहिस्ता
ब-सू-ए-नौहा-आबाद-ए-जहाँ आहिस्ता आहिस्ता
निकल कर आ रही है इक गुलिस्तान-ए-तरन्नुम से
सितारे अपने मीठे मध-भरे हल्के तबस्सुम से
किए जाते हैं फ़ितरत को जवाँ आहिस्ता आहिस्ता
सुनाते हैं उसे इक दास्ताँ आहिस्ता आहिस्ता
दयार-ए-ज़िंदगी मदहोश है उन के तकल्लुम से
यही आदत है रोज़-ए-अव्वलीं से उन सितारों की
चमकते हैं कि दुनिया में मसर्रत की हुकूमत हूँ
चमकते हैं कि इंसाँ फ़िक्र-ए-हस्ती को भुला डाले
लिए है ये तमन्ना हर किरन उन नूर-पारों की
कभी ये ख़ाक-दाँ गहवारा-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त हो
कभी इंसान अपनी गुम-शुदा जन्नत को फिर पा ले
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