मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
ना-रसा हाथ की नम-नाकी है
एक ही चीख़ है फ़ुर्क़त के बयाबानों में
एक ही तूल-ए-अलम-नाकी है
एक ही रूह जो बेहाल है ज़िंदानों में
एक ही क़ैद तमन्ना की है
अहद-ए-रफ़्ता के बहुत ख़्वाब तमन्ना में हैं
और कुछ वाहमे आइंदा के
फिर भी अंदेशा वो आईना है जिस में गोया
मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
कुछ नहीं देखते हैं
महवर-ए-इश्क़ की ख़ुद-मस्त हक़ीक़त के सिवा
अपने ही बीम ओ रजा अपनी ही सूरत के सिवा
अपने रंग अपने बदन अपने ही क़ामत के सिवा
अपनी तन्हाई-ए-जाँ-काह की दहशत के सिवा!
दिल-ख़राशी ओ जिगर-चाकी ओ ख़ूँ-अफ़शानी
हूँ तो नाकाम पे होते हैं मुझे काम बहुत
मुद्दआ महव-ए-तमाशा-ए-शिकस्त-ए-दिल है
आइना-ख़ाने में कोई लिए जाता है मुझे
रात के फैले अंधेरे में कोई साया न था
चाँद के आने पे साए आए
साए हिलते हुए घुलते हुए कुछ भूत से बन जाते हैं
मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
अपनी ही ज़ात की ग़िर्बाल में छन जाते हैं
दिल-ख़राशीदा हो ख़ूँ-दादा रहे
आइना-ख़ाने के रेज़ों पे हम इस्तादा रहे
चाँद के आने पे साए बहुत आए भी
हम बहुत सायों से घबराए भी
मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
आज जाँ इक नए हंगामे में दर आई है
माह-ए-बे-साया की दाराई है
याद वो इशरत-ए-ख़ूँ-नाब किसे
फ़ुर्सत-ए-ख़्वाब किसे
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