हुज़्न-ए-इंसान
जिस्म और रूह में आहंग नहीं
लज़्ज़त-अंदोज़-ए-दिल-आवेज़ी-ए-मौहूम है तो
ख़स्ता-ए-कशमकश-ए-फ़िक्र-ओ-अमल
तुझ को है हसरत-ए-इज़हार-ए-शबाब
और इज़हार से मअज़ूरी भी है
जिस्म नेकी के ख़यालात से मफ़रूर भी है
इस क़दर सादा ओ मासूम है तू
फिर भी नेकी ही किए जाती है
कि दिल ओ जिस्म के आहंग से महरूम है तू
जिस्म है रूह की अज़्मत के लिए ज़ीना-ए-नूर
मम्बा-ए-कैफ़-ओ-सुरूर
ना-रसा आज भी है शौक़-ए-परस्तार-ए-जमाल
और इंसाँ है कि है जादा-कश-ए-राह-ए-तवील
रूह-ए-यूनाँ पे सलाम
इक ज़मिस्ताँ की हसीन रात का हंगाम-ए-तपाक
उस की लज़्ज़ात से आगाह है कौन
इश्क़ है तेरे लिए नग़्मा-ए-ख़ाम
कि दिल ओ जिस्म के आहंग से महरूम है तू
जिस्म और रूह के आहंग से महरूम है तू
वर्ना शब-हा-ए-ज़मिस्ताँ अभी बे-कार नहीं
और न बे-सूद हैं अय्याम-ए-बहार
आह इंसाँ कि है वहमों का परस्तार अभी
हुस्न बेचारे को धोका सा दिए जाता है
ज़ौक़-ए-तक़्दीस पे मजबूर किए जाता है
टूट जाएँगे किसी रोज़ मज़ामीर के तार
मुस्कुरा दे कि है ताबिंदा अभी तेरा शबाब
है यही हज़रत-ए-यज़्दाँ के तमस्ख़ुर का जवाब
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